आज एक टूटता तारा
मौन ही कुछ कह गया .…...
सांसें इसी तरह
टूट के अनंत में
विलीन होती है।
कल्पित अभिलाषा
और जिजीविषा
सूक्ष्म काया में विद्यमान
अपना स्थूल पाने की
ललक में
स्निग्ध नजरों से
खोजती हैं सर्वत्र
अपनों की आहट
जिनको अपनी
अभिव्यक्ति का मशाल देकर
स्वयं अदृश्य रहती हैं
ताकि जीवन की कुछ
पहेलियां हमेशा उलझी रहें
जिसको सुलझाने की कोशिश में
हर इंसान जीवन पर्यंत
भटकता रहे और
अपना नाट्य क्रम जारी रखे।
जीवन बस यही है
यही जीवन है।
रचना© मनोज कुमार मिश्रा