Monday, May 23, 2016

जीवन अगर क्षितिज होता

जीवन अगर क्षितिज होता
सार मिलन का तय करते
चन्द्र वलय-सा पुलकित हर्षित
चारू विनय कुसुम खिलते ।
मोहक प्रभा विहंगम तान
निशा हिमकर का प्रेम वितान
सरपट ढलता पहर पलक-सा
एक भूल नित-नित अज्ञान ।
तुम चित्र बना रंग भरती जाती
स्वप्नलोक की रचना जैसी
परम प्रासाद लोक में अविरल
धवल दिव्य प्रवंचना जैसी ।
हम धरा धाम के हैं वासी
कोई मधुर गीत ना गा पायें
आओ अनन्त में कल्पना का
एक नवल सुकोमल नीड़ बनायें ।
कौन जानता चंचल जीवन
किस बीहड़ में मोड़ेगा
कल की सांसें आज ही गिन लें
समय कहाँ कब छोड़ेगा ?
चंचल किरणें थिरक-थिरक
कुछ नाद मनोरम गा पायें
जिस राह चले हम दिवा-स्वप्न में
सुप्त मनोरथ जग जायें ।
हाँ! मन का हाला मतवाला
आज चाँद पेड़ से मिलने आया
कुछ वह विनोद में, मैं मुखरित
मिलकर चादर सिलने आया ।
हे मनुज! तुम्हारी रचना ने
कण-कण में मंगल गाया है
इह लोक व्यथा अब व्यर्थ न हो
घर मिलने कानन आया है।
चल, हमें भुलावा देकर ले चल
मौन रथों पर तम के पार
जहां मिलन की शाश्वत गाथा
गाता है सुंदर सुकुमार ।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

1 comment:

  1. रचना जगत में यह कविता कामायनी की मानिंद है
    बहुत ही अद्भुत ।
    दिनेश त्रिवेदी

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M K Mishra