Saturday, September 15, 2018

ऐसा होता है आत्मिक प्रेम

कतिपय प्रेम कहानियाँ
पूर्ण विराम के अपराह्न से
अपनी जीवन यात्रा
प्रारम्भ करती हैं ।

मौन ! असहज अभिव्यक्ति,
काल के गाल में कबलित,
समय के पाश में जीवित,
जागृत होती है
जिजीविषा की लालसा से
अनंत के स्पर्श से ;
अनाहत मन पिघलकर
मोम बन जाता है।

मौन की दरिया
एकाकी पथ पर
चलते चलते
समंदर बन जाती है ।

ऐसा होता है
आत्मिक प्रेम
जिसकी परिभाषा
शब्दों, व्यंजनाओं, विन्यासों
और मन-मुदित आह्वलाद की
छाया से परे है ।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा
                     

Monday, July 30, 2018

चाँद ! तुम आकाशीय पिंड हो

चाँद !
तुम अब
अपने उपमानों के
एकमेव अधिष्ठाता नहीं;
बल्कि आकाशीय पिंड हो।
पृथ्वी लोक का
निःशेष भ्रमण ही
तुम्हारी नियति है।

तुम्हारे कथा की रफ़्तार को
लोग शनैः-शनैः
तिरोहित करने लगे हैं।
खगोलीय चपलतायें
तुम्हें निगलती-उगलती
रहती हैं
सांप-छछूंदर की नाई।

धरावासियों की
अनगिनत मौन संवादों
और संवेदनाओं को
अपनी मुखरता में समेटकर
रोज़ आते-जाते हो।
सिलवटी साँसों के
उच्छावासों से आंदोलित
निश्छल और निर्विकार,
मानवीय भूलों की तरह,
तुम्हारा निरंतर होना
जगती को सुकून देता है।

भावों और शब्दों के पुजारी
अब भी तुम्हारे नाम का
ऋषियों की तरह
होम-जप करते हैं।
हमारा-तुम्हारा संवाद
किसी कवि के
मौन स्वीकृति का
मोहताज नहीं।
जिसे संसार की
तपिश को नंदन वन में
शीतल करने की
अभिलाषा है, वही
तुम्हारे दाग पर
ठिठोली करता होगा।

कौन जाने
कोई आकाशीय घटना
तुम्हारे अंतर्द्वंद्व की
एक सहज नवीन
पटकथा लिख दे।

इस पार
चाँद तुम हो, नभ है,
उस पार
न जाने क्या होगा।
रागों का वदन विदीर्ण हुआ
वितरागी मन का क्या होगा
जिस राह चलो तुम
मिल लेना
है मृदुल मनुज की अभिलाषा।
जीवन है उठना-गिरना
पलती इसमें कोमल आशा
तुम आओ आकर गले मिलो
है शेष यही एक अभिलाषा।

..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा