Friday, May 15, 2020

कुत्ता तो कुत्ता है

सीमा विवाद को लेकर कल दो कुत्तों में लड़ाई छिड़ गयी। एक ने दूसरे की गर्दन ऐसे दबोच ली मानो भीषण युद्ध की बिगुल बज गयी। लड़ाई पहले दोनों पंजों पर खड़े होकर शुरू हुई। फिर एक ने दूसरे को अपनी दाँव से पटक दिया।
ये मल्ल युद्ध इतना भीषण था कि मुहल्ले के सारे कुत्ते दौड़ते-भौंकते वहाँ पहुच गये और अपनी पूरी ताक़त उसको दबोचने में झोंक दी। घोंघियाने से शुरू हुई आवाज़ इतनी कर्कश होने लगी कि दो पैर का प्राणी भी बेचैनी में अपने घर से निकलने लगा। बाहर का कुत्ता मांसल होते हुए भी हिम्मत हार चुका था।

वो युद्ध बंदी की तरह अकेला मारे डर के अपनी पूँछ जहाँ तक बन पड़ा पेट के अंदर घुसाये जा रहा था। अगर स्वयं को भी पेट के अंदर छुपाने की जुगत वो जानता, तो वो आज सिकंदर था।

बीच-बीच में अपनी नुकीली दाँत से किसी कमजोर कुत्ते को डराने की कोशिश में स्वयं को संतुलित रखने की कला उसकी ताकत थी। शायद ऐसी नौबत उसके जीवन में पहले भी आ चुकी थी।

घनघोर लड़ाई और चिल्ल-पों ने मुझे भी घर से बाहर खींच लिया। मैं शर्मसार हो गया लोगों के कुत्ता हो जाने से। केवल कुत्ता ही वफ़ादार नहीं हो सकता, आदमी भी कुत्ता हो सकता है। लोग इस लड़ाई का आनंद ले रहे थे।

मैने डंडा उठाया और लड़ाई छुड़ाई। बहादुर कुत्ते मेरी तरफ गुस्से से देख रहे थे मानों मैंने किसी अपराधी को पनाह दी हो।

लड़ाई जबरन बीच में ही ख़त्म करवा दी गयी। बेचारा वो डरा कुत्ता भागकर मेरे दोनों पैरों के बीच में कूँ- कूँ करने लगा। उसकी साँसें तेज चल रही थी। पूँछ हिलने की रफ़्तार कुछ अप्रत्याशित थी।

पूँछ कुत्ते की ईमान है। पूँछ ही उसकी शान है। पूँछ की मेहनत से वह रोटी ख़ाता है। पूँछ से ही स्वमिभक्ति करता है। पूँछ से ही खुशी और पूँछ से ही भय व्यक्त करता है। ज़रा कल्पना कीजिए पूँछ विहीन एक कुत्ते की ! उसकी जिसकी आँखो में स्वमिभक्ति की चमक तो हो सकती है पर उसकी तीव्रता मापने का यन्त्र? ये तो उसकी पूँछ ही है। कटी पूँछ का कुत्ता उस ठूंठ पेड़ की तरह है जिसपर आँधियों का प्रभाव भी निःशेष होता है।
उसके अप्रत्याशित गति से पूँछ हिलाने की रफ़्तार ने मुझे मौन इशारा कर दिया कि इसे अभी सुरक्षा घेरा की नितांत आवशयक्ता है। मैने उसके माथे पर हाथ फेरकर आश्वस्त कर दिया कि अब डरने की कोई वजह नहीं।

आज उसकी इस दुर्गति ने मुझे बचपन की गलियारों में धकेल दिया।

मैं दस साल का था। गली के एक कुत्ते से मेरा अंतरंग लगाव था।. वो मेरा अभिन्न मित्र था। स्कूल के बाद बचा समय मेरा उसी के साथ बीतता। अपने भोजन का कुछ हिस्सा उसकी प्राण-रक्षा के लिए काफ़ी होता। ठंढ में मैं अपनी पुरानी कमीज़ उसे पहना देता। पर अगले दिन वह उसे नोच-नोच कर तार-तार कर देता। मुझे बहुत तकलीफ़ होती। पर क्या करते। नियती ने उसे वैसा ही बनाया था।

अक्सर उसके साथ घोड़ा-घोड़ा का खेल खेलने में मज़ा आता था। मैं उसकी पीठ पर बैठकर दोनों कान पकड़ लेता। वो भी कम चालक नहीं था।. जैसे ही मैं उसकी पीठ पर बैठता, वो ज़मीन में लोट जाता। और मेरा खेल बिगड़ जाता।

बड़ी अजीब विडंबना है। जब एक वफ़ादार मित्र था तब किसी दो पैर वाले मित्र की तलाश थी। आज अनगिनत मित्र हैं, पर किसी अजीज वफ़ादार की तलाश बदस्तूर जारी है।

समय पंख लगाकर उड़ता गया। मैं भी उसकी राह का रही बना रहा।. बचपन बीत गया। उन्मत्त उल्लास का समय बीत गया। अब बड़े हो गये। पर उस जीव से आत्मीय लगाव कभी कम नहीं हुआ।

घर से दूर रोटी के चक्कर में बिराने में समय बिताना पड़ता है। कुत्ते के लिए अब हमारे स्नेह का भी परिमार्जन हो गया।

......................रचना © मनोज कुमार मिश्रा