जाड़े
की धूप पुराने प्रेमी जैसी हो गयी
छत
के मुंडेरे पर इशारे से बुलाता है !
कभी
गुमसुम, कभी गुनगुन, कभी आँखें दिखाता है
कभी
रूठी बुआ-सी चादर लेकर सोने जाता है !
हम
ढूंढते हैं फुर्सत में कहीं उसको रिझाने को
कभी
आता, कभी जाता, कभी गुमनाम रहता है !
तुम्हारी
मिटटी जैसी फितरत है, जिधर चाहो सरक जाओ
कभी
घर में, कभी छत पर, कोई चेहरा लुभाता है !
आ
जाओ प्रिये! दोपहर है, घर में हम अकेले हैं
पता
मेरे मोहल्ले का यहाँ हर जन बताता है !
सफर
तेरा जुनूनी है, हम कहें तो क्या कहें
तेरा
आना बहुत जरूरी है, पर जाना बहुत सताता है !
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा
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M K Mishra