ऎसा लगता है
सुखे झरने में
जल की धार बहाने के लिये
आसमान में वो
कृत्रिम बादल बनाने लगे हैं ।
तो हम क्यों रुकें ?
किसके लिये रुकें ?
हम भी एक रफ्तार की उम्मीद के साथ
कल के सपनों को जीने के लिये
आँखें खोलकर
आसमान के तारों को
इन्द्रधनुष का रंग बताने लगे हैं।
कि तुम भी मेरे पास आओ
कुछ रंग उधार ले जाओ
जिसको हमने बारिश की बूँदों से उठाकर
अपने सीने से लगा रखा है ।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा
Very thought provoking poem.
ReplyDeleteDear Sir
DeleteI acknowledge your sincerity and gratitude to visit the pages of my blog.
Regards