मोह, माया, विद्रूप काया
राग, विराग, लब्ध वीतराग
सब
समर्पित है
तुम्हारी
चरणों में !
बस
एक बार माँ
मुझे
पुकार लो !
अपने
पास बुला लो,
अपनी
छाँव में बिठा लो,
मेरा
तन, मेरा मन
आकुल
है, तुम्हारे आँचल की
शीतलता के लिए !
इस
काया की भित्ति
अब मैली
और
कषाय
हो चली है ।
आत्मा
छटपटाती है,
माया और काया की
जंजीर
तोडना
चाहती है ।
हे
माँ !
मुझे
बुद्धि दो,
मुझे
ज्ञान दो,
मुझे
दृष्टि दो ।
इस
संसार की दग्धता का आभास
मैं
मौन से कर सकूँ ।
मैं
आत्म साधना कर सकूँ
मैं
वैराग्य जीवन जी सकूँ
मैं
निर्मलता ओढ़ सकूँ
मैं
निर्लिप्त कर्म साधना कर सकूँ ।
प्रायश्चित
से
इस निराकार
आत्मा को
शुद्ध
कर दो माँ ।
पुनः
इसे आपकी शरण में
शीघ्र
लौटना है ।
हे
माँ ! मुझे शक्ति दो !
कि
अंतर्द्वंद्व के
कोलाहल
को शांत कर सकूँ
कि
जिजीविषा की तृष्णा को
शमित
कर सकूँ
कि
मानव निर्माण में अपना
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा