Sunday, September 01, 2013

हर शख़्स इस शहर का बीमार नज़र आता है क्यूँ

हर शख़्स इस शहर का बीमार नज़र आता है क्यूँ
ठीक करने के लिए एक सिद्ध मंत्र चाहिए.

 

दरख़्त चौराहे का अब रात में सिर धुनता है

कैसे कहूँ कि आज उसकी जड़ भी  खोखली हो गयी.


फुग्गे नज़र आते नहीं अब बच्चों के बाज़ार में

कल एक अमीर आदमी इनको खरीद कर ले गया.

 

समंदर की भूख ने सब केंकड़ों को खा लिया

रेत पर रेंगता वही आदमी नज़र आता है अब.

 

अंधेरी रात का सिपाही अपनी नींद में बेसुध है

कौन जाने उस गली में कल फफक कर रोएगा.

 

जगाना चाहती अब माँ नहीं अपने बंशीलाल को

फिर चिपककर रोएगा वो पहर भर बेहाल कर.

 

आँखें आज सुर्ख़ हैं कल रात भर सोया नहीं

तकिया छुपा के आया हूँ कि बेटी भी न जान ले.

 

इस उफनती दरिया के शैलाब में आक्रोश है
पल दो पल की बात है कल फिर किनारे मिलेंगे.
 

..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

2 comments:

  1. Hello!
    This poem depicts how minutely you observe things. You do have an outstanding knowledge and command of the hindi language. It's very nice & thoughtful poem.
    Keep writing! Best wishes.

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    1. Thank you for your honest and genuine feedback.
      Regards

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M K Mishra