Monday, September 09, 2019

मेरे किरदार को तू भी पहन के देख जरा

हम दरिया हैं तूफ़ान से हरदम हैं रहगुजर
बिखर जाते हैं हवा में देवदार की तरह।

कहां किसी का छूटता है अपनों से वास्ता
गोया चला था साथ वो दिलदार की तरह।

किस्मत मेरे घर आती है चुपके से इस कदर
बच्चों से फैले अर्श पर रोशनाई की तरह।

किसी के वास्ते मन्नू कहां रुकती है ये दुनिया
तुम तो ठहर जा सुबह तक तन्हाई की तरह।

मेरे किरदार को तू भी पहन के देख तो सही
किसी गरीब के घर में ढकी रजाई की तरह।

                ..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Sunday, September 08, 2019

जिंदगी से कोई गिला नहीं

तुम अकेले फिर खड़े हो भीड़ में खोए नहीं
मशाल-ए-जश्न में कुछ तो धुआं हुआ होगा।

शहर की रोशनी बारिश में नहा के निकली है
कल अंधेरी रात में चुपचाप कुछ हुआ होगा।

उदास पन्नों पर कुछ गज़लें रख के सो गया
रात बस चलती रही खामोश कुछ हुआ होगा।

आसां नहीं है शहर में मुफलिस कोई आदमी मिले
चेहरे वो नहीं आदमी कहें इनको नशा हुआ होगा।

आंखे खुलती नहीं अचानक रात के आगोश से
सच अभी भी सोता है ख्वाब में कुछ हुआ होगा।

दरकते रिश्ते गांव के सुकून की अब हवा नहीं
शहर खुश है दुआओं में मुकद्दस कुछ हुआ होगा।

जंग जारी है अभी तेरे कोई सपने सजाता मैं
उम्मीद लिए चलता हूं नया कुछ हुआ होगा।

जिंदगी से कोई गिला नहीं जो मिला वो महफूज़ है
पत्थर घिसकर बुत बनाने का भरम हुआ होगा।

                       ..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Wednesday, September 04, 2019

जरूरी नहीं कि हर कहानी बोल के बातें करे

राख पलटते रहे कि कोई अदद ख्वाब मिले
उंगलियां सरकने लगी, सोई चिंगारी देखकर।

गुमसुम अकेले पेड़ ने आज हंस के मुझसे बात की
अर्से बाद आदमी ने आज अदब से चलना सीखा।

जरूरी नहीं कि हर कहानी बोल के बातें करे
अक्सर इशारों में कल की निशानी छोड़ जाते हैं

बढ़ो रुक-रुक के सही कदम-दर-कदम तुम भी
हम अकेले अब नहीं इक कारवां बनता चले।

शहर में खोया हुआ आज आदमी है बेखबर
सब अकेले भागते हैं गोया मुक्कदर ढूंढने।

एक गुनगुनी धूप की मुद्दत से मुझे तलाश थी
तुम ही पलट के हंस दो, सूरज निकल आएगा।

ताज पहने हो अकेले तालियों की तलाश में
आवाज दो सबको बुलाओ देखो कमाल भीड़ का।
                    ..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Saturday, August 31, 2019

जहां के पार की दुनिया

मेरे साख-ऐ-दयार में तेरे नज़्म अब भी जिंदा हैं
कभी इधर से गुजरो तो फिर वही गीत गाना।

फलक के सितारे तेरे शय को सलाम करते हैं
मेरी तो तुम रूह हो, खुद से जुदा करूं कैसे।

जिसके मोह ने तुमको कभी बेघर किया होगा
उसी के प्रेम ने मन्नू अभी तक जिंदगी बख्शी ।

कहा था दरिया मिलती है एक रोज़ किनारे पर
जहां के पार की दुनिया हमारा आशियां होगा ।

अगर पलटकर गिर जाऊं, तुम कंधे पर उठा लेना
बहुत मुश्किल है चलकर दरिया पार कर जाना।
                                              ..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या
ये हसरतों की दुनिया
ये नफरतों का बादल
उधार की ये दौलत
ये कश्मकश के लम्हे
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या
ये कागजों में उलझी
ये मौन में ही सिमटी
साये से बात करती
ये उलझे उलझे रिश्ते
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या।
ये घूमता समय का पहिया
ये बेबसी का आलम
बेजान सी जवानी
ये बारिश का कहर होना
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या।
ये खिले-खिले से चेहरे
ये हंसी खुशी की बारिश
चुपचाप मुस्कुराना
ये तालीम की दुहाई
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या।
ये तेरा मेरा गाना
ये जहर का दोना
अंदेशों का शहर अपना
ये सुबकती सर्द रातें
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या।
ये आंखों का लाल होना
ये करवटों का पहरा
गिनती में सबका जीना
ये कांच-सा दहलना
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या।
ये बेपनाह चाहत
ये झुकी झुकी निगाहें
तेरे घर से झुक के जाना
ये आंगन का चांद होना
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या।

                         ..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Friday, July 26, 2019

एक प्रार्थना

मोह, माया, विद्रूप काया
राग, विराग, लब्ध वीतराग
सब समर्पित है
तुम्हारी चरणों में !
बस एक बार माँ
मुझे पुकार लो !
अपने पास बुला लो,
अपनी छाँव में बिठा लो,
मेरा तन, मेरा मन
आकुल है, तुम्हारे आँचल की
शीतलता के लिए !
इस काया की भित्ति
अब मैली और
कषाय हो चली है ।
आत्मा छटपटाती है,
माया और काया की जंजीर
तोडना चाहती है ।

हे माँ !
मुझे बुद्धि दो,
मुझे ज्ञान दो,
मुझे दृष्टि दो ।
इस संसार की दग्धता का आभास
मैं मौन से कर सकूँ ।
मैं आत्म साधना कर सकूँ
मैं वैराग्य जीवन जी सकूँ
मैं निर्मलता ओढ़ सकूँ
मैं निर्लिप्त कर्म साधना कर सकूँ ।
प्रायश्चित से
इस निराकार आत्मा को
शुद्ध कर दो माँ  ।
पुनः इसे आपकी शरण में
शीघ्र लौटना है ।
हे माँ ! मुझे शक्ति दो !
कि अंतर्द्वंद्व के
कोलाहल को शांत कर सकूँ
कि जिजीविषा की तृष्णा को
शमित कर सकूँ
कि मानव निर्माण में अपना
सर्वस्व समर्पित कर सकूं ।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा