लहरों के बीच बना
अल्हड घरौंदे-सा
अल्हड घरौंदे-सा
आज
मन लगता है
किसी
के लिए मस्ती
किसी
के लिए बस्ती
बनकर
घूमता हूँ
अपने
ही शहर में !
सांसों
की जद्दोजहद
सर्द
रातों में बंद नाक-सी
लगती है !
बचपन
में नंगे बदन
उन्मत्त
धूल में लोटना
और
आँगन की देहरी पर
घंटों
रोने जैसा रोज़
दिन
बीतता है !
लो
! चुपके से बसंत आ गया !
कोयल की प्रणय कूक
और
बगुले का जटिल मौन
अब
मुझे नहीं रिझाता ।
मैं
खोज रहा हूँ उम्मीद
रेत
में अकेले बैठकर
कल
को हँसकर जीने के लिए !
मेरा
क्या है ?
मैं
तो किसी कंधे पर
अपनी
गर्दन झुका लूंगा ।
मैं
तो परेशान हूँ
तुम्हारे
सजीव कल के लिए ।
तुम
आओ
उठा ले जाओ
अपनी
धरोहर
जिसको
साल-दर-साल संभाला है
मैंने
मन की पेटी में बंद करके ।
मुझे
आज़ाद कर दो ।
अपनी
सीमायें मुझे
फिर
से लिखनी है
किसी जवान सैनिक की तरह !
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा
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M K Mishra