कहाँ
गए बचपन के वे दिन
कुत्ते बिल्ली तितली मोर
रवि-शशि से आँख मिचौली
खग-मुर्गों का युगल भोर ।
जब
बन्दर वाला आता था
कोई
सुन्दर गीत सुनाता था
डमरू
बजा-बजा बन्दर का
मोहक
नाच दिखता था ।
उनका
डंडा, इनकी गिल्ली
एक
किया सब बारी-बारी
छुप
गए धीरे भाग खड़े हो
ढूंढ मरी अम्मा बेचारी ।
धूल
उड़ाना, मौज मनाना
था
केवल मस्ती का सार
वही
आज़ादी फिर से आती
फिर
से पड़ती कोमल मार ।
बड़े
हुए हम, हुए सुशोभित
रजनीगंधा,
द्रुमदल में
मान मिला, अपमान मिला
धरती
और अम्बर तल में ।
कोई
कहे तू ले लो बचपन
क्रय
कर लूंगा 'नाम' से
बचपन
का संग्राम भला है
यौवन के अरमान से ।
धन दौलत सब पलना है
जिसे देख लो रो-रो कहता
आज नहीं कल जलना है ।
हाय ! पुराना बचपन भोला
लौट नहीं फिर आएगा
हड्डी-हड्डी तोड़-फोड़कर
अंत समय ले जायेगा ।
हंसकर आना, हंसकर जाना
अगर यहाँ हम सीख पाते
धरा नहीं यह स्वर्ग कहाता
गर हिल-मिल कर हम रह पाते ।
मानव पहले घबराता है
स्मृति जीवन की हो धूमिल
आँखें फिर तब मूंद जाता है ।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा
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M K Mishra