Thursday, February 04, 2016

कहाँ गए बचपन के वे दिन

कहाँ गए बचपन के वे दिन
कुत्ते बिल्ली तितली मोर
रवि-शशि से आँख मिचौली 
खग-मुर्गों का युगल भोर ।

जब बन्दर वाला आता था
कोई सुन्दर गीत सुनाता था
डमरू बजा-बजा बन्दर का 
मोहक नाच दिखता था ।

उनका डंडा, इनकी गिल्ली
एक किया सब बारी-बारी
छुप गए धीरे भाग खड़े हो
ढूंढ मरी अम्मा बेचारी ।


धूल उड़ाना, मौज मनाना
था केवल मस्ती का सार
वही आज़ादी फिर से आती
फिर से पड़ती कोमल मार ।

बड़े हुए हम, हुए सुशोभित
रजनीगंधा, द्रुमदल में
मान मिला, अपमान मिला
धरती और अम्बर तल में ।

कोई कहे तू ले लो बचपन
क्रय कर लूंगा 'नाम' से
बचपन का संग्राम भला है
यौवन के अरमान से ।

पैनी बुद्धि, मोटी शक्ति
धन दौलत सब पलना है
जिसे देख लो रो-रो कहता
आज नहीं कल जलना है ।

हाय ! पुराना बचपन भोला
लौट नहीं फिर आएगा
हड्डी-हड्डी तोड़-फोड़कर
अंत समय ले जायेगा ।

हंसकर आना, हंसकर जाना
अगर यहाँ हम सीख पाते
धरा नहीं यह स्वर्ग कहाता
गर हिल-मिल कर हम रह पाते ।

जब अंत समय आ जाता है
मानव पहले घबराता है
स्मृति जीवन की हो धूमिल
आँखें फिर तब मूंद जाता है ।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

No comments:

Post a Comment

Dear Readers
Your comments/reviews are most honourably solicited. It is you whose fervent blinking keep me lively!

Regards

M K Mishra