Friday, May 08, 2015

मन की अभिलाषा गीत बन गयी

न जाने कौन हमारी खुशी की चुपचाप दुआएँ करता है
असर इतना कि अश्कों को भी हँसी-खुशी से भरता है

न जाने कौन हमारे क्रंदन को भी अपनी दौलत कहता है
असर इतना कि चिथड़ों में भी शहंशाह-सा रहता है

न जाने कौन राह के कांटो को भी चुपके-चुपके चुनता है
असर इतना कि झंझावात में स्वप्न हिंडोले बुनता है

जाने कौन हमारे पन्नों में रोज नया रंग भरता है
असर इतना कि जीवन ही अब इंद्रधनुषी लगता है

न जाने कौन हमारे सपनों को एक कौतूहल-सा गढ़ता है
असर इतना कि साँझ-सबेरे सूरज यहाँ भी चलता है

चल हमें भुलावा देकर ले चल, चाँद जहाँ पर आता है
जीवन उठता-गिरता पथ पर नीरव चैन न पाता है

मन की अभिलाषा गीत बन गयी नयन बन गये हैं अनिमेष
कल की उद्वेलना आज सो गयी और नहीं कुछ रहा शेष
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

No comments:

Post a Comment

Dear Readers
Your comments/reviews are most honourably solicited. It is you whose fervent blinking keep me lively!

Regards

M K Mishra