दीवार से टकराकर
लौटती घायल प्रतिध्वनि
हवा
की तेज रफ़्तार में
अपना
अर्थ स्वयं आत्मसात करके
नियति
के दरवाजे पर दस्तक दे,
इंसानियत
की आत्मा का जर्रा-जर्रा
सकते
के आलम में थर्रा जाता है।
एक क्षीण, मद्धिम, पीली रोशनी
अपनी अस्मिता की सार्थकता के लिए
जगती के सामने आँखे फाड़कर
तिमिर का मौन भंग करता है,
आने वाले हरेक राहगीर को
अपने कल का इतिहास दिखाता है,
और कहता है--
मैं एक जीवंत संवेदना का
जागृत प्रतिरूप हूँ
जिसकी परछाई का स्वरुप टटोलना
अगर तुम्हे स्वीकार है तो
उसे देखो-- उफनती नदी के
एकांत किनारे पर बैठा
रेत का एक कण !
अपने अस्तित्व के लिए वह
अकेले प्राणपण से जूझ रहा है ।
पहर भर बाद
असीम जलसमाधी में विलीन होकर
उस अनंत सागर की एक
शाश्वत कहानी बन जाएगा !
जीवन इसी अनंत में बिखरी
पल-पल की मुखरित संवेदनाएं हैं
जिसका आकार सूक्ष्म से शुरू होकर
विराट की ही तो जलसमाधि है !
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा
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M K Mishra