काँटों की सरहद पर
अधखुले अधर किए
बेगुनाह, बेफिक्र, उल्लासित गुलाब
सिर झुकाए और उठाए
धीरे-धीरे झूम-झूम कर
मूक.....
अपनी आत्मकथा सुनाता है.
और जीवन के बसंत का
प्रतीक बनकर
दो क्षण की साझेदारी से
हँसते-हँसते
कुछ देकर, बिन पाये
बिलखते हुए
अपनी जीवन लीला
शेष कर जाता है.
और छोड जाता है
अपनी पवन स्मृति
सूखे अस्थि पंजर के रूप में,
जिसको कि हम उठाकर
एक बार फिर
फेंक तो सकें, नोच तो सकें
ताकि पुनः
नवजीवन की आशा
पानी के भंवर की भाँति
एक बार फिर से
विलीन हो जाए.
जब कब्र की तह से कुलबुलाती आत्माएँ
अपनी पहचान की खोज में
निरीह आँखों से देखती हैं,
और शब्दों का रूप
गूंगों की तरह घोंघियाती हुई
दस्तक देकर हमें आंदोलित करती हैं,
तो हम अनसुनी, अनदेखी निगाहों से
एक कदम और आगे बढ़ जाते हैं.
क्योंकि........
हम अब बुद्धिमान हैं,
ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति,
और संसार के बेहतर निर्माता
जिसके मस्तिस्क में अन्वेषी
बुध्धि तो है
पर सीने में मृदुल हृदय नहीं,
जिसके पास निर्माणकारी हाथ तो है
पर कला परखी भावना नहीं,
और जो सुंदर तो है--
लेकिन अभिमानी!
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा
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