Tuesday, May 31, 2016

आसां नहीं होता दामन बचाना

कहाँ सज्दे में सर झुके तुम्ही कह दो  तो अच्छा है
मेरी आंखे तो झुकती हैं हर नम आंखों को देखकर।

तेरे रूखसार की रोज बंदगी मेरे शय में अब भी शामिल है
जिस हाल में हों मुस्कराया तेरी नूर-ए-रहमत देखकर ।

बहुत ही मुश्किल है जनाजा उठाकर फिर सुला देना
आसां नहीं होता दामन बचाना मज़हबी हंसी देखकर ।

तेरे शहर में कैसे सो जाऊँ जमीर अपनी टांगकर
क्या गुजरेगी उन फकीरों पर हमको नशे में देखकर ।

बिखर के जीना औ' जी कर बिखरना आसां नहीं है मन्नू
तंज कसते हैं बेवजह लोग मुफलिसी रूखाई देखकर ।

समेट लाता हूँ अपने दामन में उधार की कुछ बची नज्में
कल हों न हों कह नहीं सकते हालात-ए-मंज़र देखकर ।

बहुत जी लिया यहाँ रफ़्तार-ए-नब्ज गिन-गिन कर
कि मर भी नहीं सकते खुदाया आहट तेरी देखकर ।

मिला है खाक में नफरत अदब से दरिया और दरख्तों का
साहिल को किनारे जाने दो लहरों का कलंदर देखकर ।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

अधूरा सपना


सुबह की बारीश ने
घोल दिया अधूरा सपना ।
उनींदी आँखों में
चुप्पी उतरने लगी
सूरज के साथ-साथ ।
अधूरी कहानी गीली घास पर
रेंगती ईल्ली-सा
अपना मुकाम ढूँढती है।

अनजान चेहरे बिदककर
गहराती आद्रता में
अपना ठौर तलाशने
आहव्लादित पतंगों-सा फुदकते हैं
इधर-उधर जलती लौ के इर्द-गिर्द ।

सपना खो गया है ।
नींद अधूरी है ।
नीम का गीला गाल
आईने में नहीं समाता
शीशम तिरोहित है
वृक्षों की सभाओं में
आम गुमसुम है भीगकर
मासूम बादल के नीचे
अगली रात का इंतजार
चाँद के साथ बाकी है
कि सपना पूरा हो
घरौंदो में मढ़े रोशनदान-सा
कि हवा आती-जाती रहे
स्वछंद बच्चों की किलकारी जैसी ।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Monday, May 23, 2016

जीवन अगर क्षितिज होता

जीवन अगर क्षितिज होता
सार मिलन का तय करते
चन्द्र वलय-सा पुलकित हर्षित
चारू विनय कुसुम खिलते ।
मोहक प्रभा विहंगम तान
निशा हिमकर का प्रेम वितान
सरपट ढलता पहर पलक-सा
एक भूल नित-नित अज्ञान ।
तुम चित्र बना रंग भरती जाती
स्वप्नलोक की रचना जैसी
परम प्रासाद लोक में अविरल
धवल दिव्य प्रवंचना जैसी ।
हम धरा धाम के हैं वासी
कोई मधुर गीत ना गा पायें
आओ अनन्त में कल्पना का
एक नवल सुकोमल नीड़ बनायें ।
कौन जानता चंचल जीवन
किस बीहड़ में मोड़ेगा
कल की सांसें आज ही गिन लें
समय कहाँ कब छोड़ेगा ?
चंचल किरणें थिरक-थिरक
कुछ नाद मनोरम गा पायें
जिस राह चले हम दिवा-स्वप्न में
सुप्त मनोरथ जग जायें ।
हाँ! मन का हाला मतवाला
आज चाँद पेड़ से मिलने आया
कुछ वह विनोद में, मैं मुखरित
मिलकर चादर सिलने आया ।
हे मनुज! तुम्हारी रचना ने
कण-कण में मंगल गाया है
इह लोक व्यथा अब व्यर्थ न हो
घर मिलने कानन आया है।
चल, हमें भुलावा देकर ले चल
मौन रथों पर तम के पार
जहां मिलन की शाश्वत गाथा
गाता है सुंदर सुकुमार ।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Friday, May 06, 2016

चाँद! तुम तरल हो रहे हो

चाँद !
तुम रुई-सा मुलायम
और पानी-सा
तरल हो रहे हो
गीली मिट्टी जैसे
धीरे धीरे सरकना
सीख लिया है ।
उष्ण रातों में
मंद मीठी पछुआ वयार की नाईं
शीतल सिलवटी गालों पर
एक सुखद एहसास की
नजरें फेर देते हो ।
धुप का धुआं जैसे
दीपक की लौ से लिपटकर
अपना अस्तित्व बोध
खोने लगता है
मेरा मृदुल शुन्य
तुम्हारे विराट में
शनैः शनैः घुलने लगा है ।

तुमने  कोमलता, निर्भीकता 
पाताल की गहराई और
सागर का विस्तार कैसे पाया?
एक बात मुझे भी समझाओ (समझाओगे?)
फूलों की लालिमा-सी शर्म
जीवन की गहरी धुंध में भी
हँसते-हँसते वक़्त को 
कुरेदना,
अट्टहास करना,
बरसते बादल को एकटक
शांतचित्त कोने में छुपकर
निहारना
कहाँ से सीखा ?
शक्तिपुंज की तरह
चतुर्दिश सुख की
मखमली चादर फ़ैलाने का
गुण कहाँ से पाया ?

तुमको शायद समय ने 
स्त्रीत्व सीखा दिया 
और मैं ?
समय को पकड़ने की चाह में
कई हिस्सों में बंटता चला गया
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा